दीपक नौगांई, नैनीताल 8 सितंबर ।
उत्तराखंड को यदि उत्सवों और सांस्कृतिक धरोहर का घर कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इन दिनों पूरे कुमाऊं-गढ़वाल क्षेत्र में नंदा देवी महोत्सव का उल्लास छाया हुआ है। यह केवल मेला या मनोरंजन नहीं, बल्कि उत्तराखंड की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक एकता का प्रतीक है।

पुराणों में हिमालय की पुत्री
हिंदू पुराणों के अनुसार नंदा हिमालय की पुत्री हैं, जिनका विवाह भगवान शिव से हुआ। देवी भागवत में नंदा को शैलपुत्री, जबकि भविष्य पुराण में दुर्गा स्वरूपा बताया गया है। कुमाऊं में देवी को अन्नपूर्णा और युद्ध की देवी दोनों रूपों में पूजा जाता है।
इतिहास में नंदा देवी पूजा
चंद वंशकाल में नंदा देवी पूजा को बड़ा स्वरूप मिला।
1670 में राजा बहादुर चंद बधानगढ़ से स्वर्ण प्रतिमा लाकर अल्मोड़ा में प्रतिष्ठित की।
1815 में अंग्रेजों ने प्रतिमा को नंदा देवी परिसर में स्थापित किया।
अल्मोड़ा में उघोत चंदेश्वर व पार्वतीश्वर मंदिरों का निर्माण 1690 में राजा उघोत चंद ने कराया, जिन्हें बाद में राजा दीपचंद ने जीर्णोद्धारित किया।
रोचक प्रसंग – कमिश्नर ट्रेल की आंखों की रोशनी
1815 में कुमाऊं कमिश्नर ट्रेल ने नंदा देवी की प्रतिमा स्थानांतरित कर दी, जिसके बाद कथित रूप से उनकी आंखों की रोशनी चली गई। क्षमा याचना कर मंदिर बनवाने पर उन्हें दृष्टि लौटी—यह प्रसंग आज भी अल्मोड़ा की लोककथाओं में जीवित है।
कत्यूरी वंश का जुड़ाव
कत्यूरी राजाओं के अभिलेखों में भी नंदा देवी की स्तुति के शिलालेख मिलते हैं। अल्मोड़ा में तांत्रिक विधि (आगमोक्त) से पूजा परंपरा प्रचलित है, जिसे तारा शक्ति स्वरूपा माना जाता है।
नैनीताल का नंदा देवी महोत्सव
मल्लीताल क्षेत्र का प्राचीन मंदिर 1880 के भूस्खलन में झील में समा गया।
मोतीराम साह ने नया मंदिर बनवाया और 1903 में महोत्सव की शुरुआत की।
आज भी भाद्रपद पंचमी से महोत्सव की तैयारियां होती हैं।
षष्ठी – केले के वृक्षों की शोभायात्रा
सप्तमी – मूर्ति निर्माण
अष्टमी – वस्त्र-आभूषण से सुसज्जित प्रतिमा स्थापना
नवमी – कन्या पूजन व भोग
दशमी – नगर भ्रमण और झील में विसर्जन
आस्था का पर्व
नंदा देवी महोत्सव केवल उत्सव नहीं, बल्कि मां नंदा के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास का जीवंत प्रतीक है, जो कुमाऊं-गढ़वाल को एक सूत्र में बांधता है और लोकसंस्कृति को नई पीढ़ी तक पहुंचाता है।








